ज़ायरा वसीम और हमारी टिप्पणी..
हिंदुस्तान एक लोकतांत्रिक देश और यहाँ पर हर किसी कि अपनी विचार धारा है चाहे वह हिंदू धर्म का हो या मुस्लिम धर्म या अन्य धर्म या लेफ़्ट की अपनी विचारधारा हो। उन विचारधाराओं से किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए और न कोई सवाल खड़े करने चाहिये जबकि उस विचारधारा से मुल्क में अशांति उत्पन्न होने का ख़तरा न हो।
उसी तरीके से हर विचारधारा के अनुयायियों में उस वक़्त ख़ुशी का संचार हो जाता है, जब कोई व्यक्ति उस विचारधारा के लिए अपने आप को समर्पित कर देता है। उस विचारधारा के लोग उसकी तारीफ़ में क़सीदाख़्वानी करने लगते हैं
और यह क़सीदाख़्वानी उस वक़्त तक हमारी नज़र में सही है जब तक के उस तारीफ़ के पुल से शान्ति और संविधान की रूह को ठेस न पहुंचे।
उसी तरीके से जब ज़ायरा वसीम ने यह कहकर फ़िल्मी दुनिया को छोड़ दिया कि फ़िल्मी दुनिया में हमें हर वह चीज़ नसीब होती है जो एक इंसान को ज़रूरत होती है लेकिन हमको वह चीज़ नहीँ मिली जिसकी मुझे तलाश थी और उसी को तलाशने के लिए मैंने क़ुरआन का अध्ययन किया तो हमें वह चीज़ क़ुरान के जरिये मिली, वह था दिली सुकून। इसलिये मैं अपने दिली सुकून और अपने रब के रिश्ते को मजबूत करने के लिए फ़िल्मी दुनिया को अलविदा कह रही हूँ।http://https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=390301498275020&id=184781985493640
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इस बात पर मुस्लिम विचारधारा के अनुयायियों में ख़ुशी की लहर दौड़ गई तो दूसरी तरफ़ लोग उसके इस फैसले का एहतराम करने के बजाए उन पर और इस्लामी विचारधारा पर सवालों की वर्षा कर दी। इस पर इस्लामी विचारधारा और दूसरी विचारधारा के दरमियान ज़बानी जंग शरू हो गई है। उसी पर कुछ लोग इस्लामी विचारधारा को लेकर बेहद आपत्तिजनक टिप्पणी कर रहे हैं और इस्लाम को बुरा भला कह रहे हैं जो कि एक धर्मनिरपेक्ष देश में ग़लत है सबको अपनी आज़ादी है तो इस तरह के प्रश्न नहीँ उठने चाहिये इसलिये क्योंकि अनेकता में एकता की खूबसूरती का अलग रंग है, नहीं तो तारीख़ गवाह है कि जहाँ कहीं भी सिर्फ़ एक तरह के फूल खिले हैं तो वह बगीचा नहीं रहा है बल्कि वह कीचड़ रहा है।
– मोहम्मद आबशारूद्दीन (लेखक के विचार निजी हैं)