एक वक़्त था जब बुर्क़ा या अबाया पर्दा और हया की अलामत कहलाता था फिर बुर्के ने सफर तय किया और फिटिंग की तंग गलियों व तारीक गलियों से होता हुआ जिस्म के साथ ऐसा चिपकता गया कि अब बुर्के को भी बुर्के की ज़रूरत पड़ गई है और अब दौर ए जदीद का बुर्क़ा या अबाया बेहयाई का सिम्बल बन चुका है !
इस्लाम में पर्दे बहुत ज़रूरी है क्योंकी इसका हुक्म पवित्र कुरान शरीफ में है पर्दा सिर्फ औरतों के लिए ही नहीं बल्कि मर्दों के लिए भी है जैसा कि पवित्र कुरान पाक में लिखा है अल्लाह मुसलमान मर्दो को यह कम दे रहा है कि अपनी नजरें नीची रखें और अपनी शर्मगाह की हिफाजत करें क्योंकि इसी में उसकी भलाई है।
पवित्र कुरान शरीफ का मफ़हूम ये है की कि मर्द अपनी निगाहें को नीचे रखें (किसी गैर महरम पर निगाह ना पड़ने दे )और औरत अपने जिस्म और अपनी जीनत को छुपा कर रखें ( इस तरह के लिबास पहनकर गैर महरम के सामने ना आए जिसमें उसकी जिस्म नुमाया ना हो)
फिर सलवार और सलवार से ट्राउज़र,फिर ट्राउज़र से स्किन टाइट पजामे जो आहिस्ता-आहिस्ता ऊपर को सरक रहे हैं सर पे चादर से दुपट्टा जो सर से बिल्कुल ग़ायब अब कमीज़ का गला है जो आगे और पीछे से नीचे की तरफ सरक रहा है ये निशानदेही है कि तरबियत गाह या दर्सगाह अब माँ की गोद नहीं बल्कि 32″ का tv स्क्रीन और 6″ की मोबाइल स्क्रीन है।
तरक़्क़ी का सफर अभी मज़ीद जारी है जो मुख्तसर और तंग लिबास से निकलकर बेलिबासी की तरफ रवां-दवां है अल्लाह ख़ैर करे कल जिन्हें छू नहीं सकती थी नज़र आज वह रौनक ए बाज़ार नज़र आती हैं। जैसा पर्दा आज चल रहा है वह समाज के लिए बहुत ही खतरनाक है।
शरीयत जिस मकसद के लिए पर्दा का हुक्म दिया है वह मकसद पूरा नही हो रहा है अगर कोई औरत बेपर्दा रहती है तो जाहिर है उसने कुरान का एक हुकुम पूरा करने में कोताही की है जिसको अल्लाह अपनी रहमत से माफ भी कर सकता है और पकड़ भी कर सकता है ।