1857 की वह रात बहुत कठिन थी , जिस क़िले में कभी रौनकें रश्क़ करती आज वहां कोहराम मचा हुआ था , बाहर गोलों के धमाकों से दिल दहल जाते , गोद मे डेढ़ साल की बच्ची भूख से बिलख रही थी लेकिन परेशानी के आलम में सीने में दूध ही नहीं बचा था।
बेग़म कुलसुम ज़मानी को पिता बहादुर शाह ज़फ़र ने आधी रात को हाज़िर होने का हुक़्म दिया बेग़म कुलसूम जब पिता बहादुर शाह ज़फ़र के पास हाज़िर हुईं तो पिता , मुसल्ले पर बैठे थे हाथ मे तस्बीह थी।
बहादुर शाह ने पास बुला कर शफ़क़त से माथा चूमा , आंखों में आंसू आ गए , बेटी से बोले कि अब मैंने तुमको खुदा को सौंपा ,, क़िस्मत में हुआ तो फिर मिलेंगे …… लेकिन अभी आधी रात में ही अपने शौहर के साथ कहीं चली जाओ ।
इतना कहते ही बूढ़े बादशाह ने अपने कांपते हाथ बारगाहे इलाही में उठाये और कि या ख़ुदा मैं बाबर की औलाद जिसने तेरे परचम को दारुल कुफ़्र में फहराया …. मेरे बच्चों की हिफ़ाज़त फरमा , यह महलों के रहने वाले अब जंगलों और वीरानों में जाते हैं।
इन औरतों बच्चों की लाज रखियो ।मैंने इस मुल्क के एक एक वाशिंदे से औलाद की तरह मुहब्बत की है , मुझे यकीन है कि यह उसके बदले में अवाम से मुहब्बत और अमान पाएंगे यह कह कर बादशाह ने कुछ जेवरात देकर ।
बेटी कुलसुम , उसके शौहर मिर्ज़ा ज़ियाउद्दीन , बहन बेगम नूर महल और बहनोई मिर्ज़ा उम्र सुल्तान को रात के पिछले पहर लाल किला छोड़ने का हुक़्म दिया किला छोड़ कर दिल्ली के सरहदी गाँव करोली पहुँचे।
यह कोचवान का गाँव था , जहाँ सुबह नाश्ते में बाजरे की रोटी और छाछ मयस्सर था , आज यही ग़नीमत लग रहा था । एक दिन अमन से गुज़र गया , लेकिन दूसरे दिन शाही लोगों के ठहरे होने की खबर फ़ैली तो आस पास के गुर्जर और जाट ने आकर कोचवान का घर घेर लिया और लूटपाट शुरू करदी।
उनके साथ मोटी तगड़ी औरतें थीं जो हमसे चुडैलों की तरह चिमट गयीं , जब वह हमारी तरफ हाथ बढ़ातीं तो उनके लिबास और घाघरे से अज़ीब सी बदबू आती … एक एक ज़ेवर तन से उतार कर लूट लिया मैं ( बेग़म कुलसूम ज़मानी ) हैरान थी ।
कि यह वह लोग थे जो हमारी तरफ निगाह भरकर देखने की हिम्मत नहीं करते थे यह वह लोग थे जो हुक़्म बजा लाने के इंतजार में कतार बना कर सर झुकाए खड़े रहते थे
हम उसको इनकी अक़ीदतमन्दी समझते थे , लेकिन यह हद दर्ज़ा मक्कार और मौका परस्त निकले ।
वक़्त बदल गया था ….. इनका हम पर जुल्म उस बदलाव की आहट थी । बहुत लम्बे वक़्त तक ठोकरें खाने के बाद अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने मक्का बुला लिया और एक ग़ुलाम जिसे बेग़म ज़मानी ने कभी आज़ाद किया था , उसने यहाँ आकर बहुत दौलत कमाई थी ।
वह जब सुनकर हमारे पास आया तो फकीराना हालत देखकर बहुत रोया और उसने पनाह दी ।1857 के ग़दर के जो भी असबाब थे लेकिन मेरे बाप ने मराठों , सिखों , राजपूतों , पेशवाओं का साथ दिया ….. लेकिन सिर्फ हमने इसकी बहुत भारी कीमत चुकाई ।
और वह भी उन के लिए जिन्होंने मौका मिलते ही जिस्म से पैरहन तक नोच लिए । पूरे मुल्क में कहीं कोई पनाह गाह मयस्सर नहीं हुई : ……किताब ~ बेगमात के आंसू