सुलतान सलाहुद्दीन अय्यूबी (रह.) जिन्हें “फ़ातिहे बैतुल मुकद्दस” कहा जाता है, छटी सदी हिजरी के बड़े ही नामवर और कामयाब बादशाह गुज़रे हैं। पिता की तरफ़ निसबत करते हुए उन्हें “अय्यूबी” कहा जाता है। उन की परवरिश एक दर्मियानी दर्जे के शरीफ़ ज़ादा खानदान में सिपाही की हैसियत से हुई। बहुत कम लोग जानते हैं कि सलाहुद्दीन अय्यूबी हाफिज़-ए-क़ुरआन भी थे.
उन्होंने मात्र 15 साल की उम्र में ही क़ुरआन हिफ़्ज़ कर लिया था। सलाहुद्दीन अय्यूबी तकरीत में पैदा हुए थे ये वही शहर था जहां बाद में सद्दाम हुसैन पैदा हुए थे। बादशाह बनने के बाद उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी बड़े ही मुजाहदे और सब्र के साथ गुज़ारी। उन्होंने अपनी जिंदगी का मक्सद सिर्फ एक ही बना लिया था के दुनिया में अल्लाह का नाम कैसे बुलंद हो.
उन के कारनामों में सब से बड़ा कारनामा यह है के उन्होंने किबल-ए-अव्वल यानी बैतुल मुक़द्दस को आज़ाद कराया, जो तकरीबन नब्बे साल से इसाइयों के कब्जे में था। यह वही किबल-ए-अव्वल है जहाँ हुजूर (ﷺ) ने अम्बियाए किराम की इमामत की थी और फिर वहाँ से आसमान का सफ़र (मेराज) किया था, ईसाइयों ने जब बैतुल मुकद्दस पर कब्ज़ा किया था, तो मुसलमानों पर जुल्म व सितम की इन्तिहा कर दी थी.
मगर उसी बैतुल मुकद्दस पर नब्बे साल के बाद जब मुसलमानों का दोबारा कब्ज़ा हुआ, तो सुलतान सलाहुद्दीन अय्यूबी (रह.) ने उन से बदला लेने के बजाए यह एलान करा दिया के जो बूढ़े आदमी फिदिया की रकम नहीं दे सकते, वह आज़ाद किए जाते हैं के वह जहाँ चाहें चले जाएँ। उसके बाद सुब्ह से शाम तक वह लोग अमन के साथ शहर से निकलते रहे। इसके साथ साथ उनको बैतुल मुकद्दस की ज़ियारत की भी आम इजाज़त दे दी.
सुलतान सलाहुद्दीन (रह.) का यह वह एहसान व करम था जिस को ईसाई दुनिया आज भी नहीं भुला सकती है लेकिन सुल्तान सलाहुद्दीन अयूबी से नफरत आज भी कुछ लोगों में पाई जाती है पहले विश्व युद्ध में फ्रांस के फौजी जनरल जब उनकी कब्र पर पहुंचा तो उनकी क़बर को ठोकर मारते हुए कहा था उठ सलाहुद्दीन हम वापस आ आगये हैं.